तो दोस्तों आज का हमारा टॉपिक हैं रेडियो
ग्राफिक कंट्रास्ट मीडिया | कंट्रास्ट मीडिया पर आगे बढ़ने से पहले हम एक बार
कंट्रास्ट के बारे में पता कर लेते हैं की कंट्रास्ट होता क्या हैं |
तो दोस्तों एक्सरे फिल्म पर दिखने बाले विभिन्न
भागो की Blackness तथा Whiteness को हम Optical Density में मापते हैं | एक्सरे
फिल्म पर दिखने वाले इस white पार्ट की Optical density कम होती हैं, तथा ब्लैक
पार्ट की ऑप्टिकल डेंसिटी अधिक होती हैं, क्योकि वह ज्यादा एक्सरे फोटोन पहुचते
हैं जो एक्सरे फिल्म को ब्लैक कर देते हैं |
एक्सरे फिल्म पर स्थित विभिन्न भागो की इस
ऑप्टिकल डेंसिटी में अंतर ही कंट्रास्ट कहलाता हैं, यह कंट्रास्ट ही एक्सरे फिल्म
पर स्थित दो अलग अलग बॉडी पार्ट्स की इमेज में अंतर करता है |
लेकिन कई बार हमारी बॉडी इस एक्सरे बीम में कोई
कंट्रास्ट उत्पन्न नहीं कर पाती, जिसे सब्जेक्ट कंट्रास्ट कहते हैं, क्योकि बॉडी
में पास पास स्थित दो बॉडी ओर्गंस की डेंसिटी में डिफरेंस या तो बहुत कम होता हैं
या बिलकुल नहीं होता हैं जिससे उससे निकलने वाली एक्सरे बीम एक जैसी होती हैं,
उसमे कोई कंट्रास्ट नहीं होता हैं, जैसे हमारे बॉडी की धमनी व शिराए एक्सरे में
दिखाए नहीं देती हैं |
ये धमनी व शिराए एक्सरे में दिखाई दे इसके लिए
इनमे कोई हाई एटॉमिक नंबर का पदार्थ भर देते हैं, जिससे ये इसके पार जाने वाली
एक्सरे बीम में से कुछ एक्सरे अवशोषित कर लेती हैं, जिससे एक्सरे फिल्म पर उस भाग में
एक्सरे फोटोन की संख्या कम होने से वहा बॉडी पार्ट में उत्पन्न इस कंट्रास्ट से वो
एरिया अलग दिखाई देगा | इस प्रकार किसी ऐसे बॉडी पार्ट में जहा कोई कंट्रास्ट नहीं
होता वह कुछ केमिकल्स को रखने से कंट्रास्ट उत्पन्न किया जा सकता हैं, तथा ऐसे
केमिकल्स को कंट्रास्ट मीडिया कहते है |
अतः कंट्रास्ट मीडिया कम या ज्यादा एटॉमिक नंबर
के वो पदार्थ होते हैं जो एक्सरे एग्जामिनेशन के दोरान किसी ऑर्गन की डेंसिटी में
परिवर्तन कर देते हैं, तथा कंट्रास्ट मीडिया को बॉडी पार्ट में तब रखा जाता जब
बॉडी के उस भाग में सब्जेक्ट कंट्रास्ट कम होता हैं, इस कंट्रास्ट मीडिया के उपयोग
से बॉडी में सब्जेक्ट कंट्रास्ट बढ़ जाता हैं |
कंट्रास्ट मीडिया दूसरा प्रकार का होता हैं-
प्रथम नेगेटिव कंट्रास्ट मीडिया
दूसरा पॉजिटिव कंट्रास्ट मीडिया
नेगेटिव कंट्रास्ट मीडिया कम एटॉमिक नंबर के वे
पदार्थ होते हैं जो किसी बॉडी पार्ट में रखने पर उसकी डेंसिटी कम कर देते हैं
जिससे वो बॉडी पार्ट एक्सरे के प्रति पारदर्शक या रेडियोलुसेंट हो जाता हैं, जिससे
एक्सरे उस बॉडी पार्ट को आसानी से भेद सकती हैं, तथा एक्सरे फिल्म पर उस बॉडी
पार्ट की ऑप्टिकल डेंसिटी बढ़ जाती हैं |
पॉजिटिव कंट्रास्ट मीडिया उच्च एटॉमिक नंबर के
वो पदार्थ होते हैं, जो किसी बॉडी पार्ट में रखने पर, वो बॉडी पार्ट ज्यादा रेडियो
ओपेक हो जाता हैं, अथार्थ एक्सरे को रोक लेता हैं | बेरियम तथा आयोडीन कंपाउंड
सामान्यतया काम में लिए जाने वाले पॉजिटिव कंट्रास्ट एजेंट हैं |
बेरियम कंट्रास्ट एजेंट के रूप में सामान्यतया
बेरियम सलफेट काम में लिया जाता हैं जिसे बेरियम मील भी कहते हैं, इसे पानी में
घोल कर पेशेंट को पिलाया जाता हैं, और गेस्ट्रोइंटेसटिनल स्टडी की जाती हैं |
बेरियम मील के रूप में बेरियम सलफेट को ही काम में लिया
जाता हैं क्योकि-
इसका उच्च एटॉमिक नंबर 56 होता हैं, जिससे अधिक
फोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट होने के कारण एक्सरे का अवशोषण अधिक होता हैं |
यह Non toxic पदार्थ होता हैं |
यह एक अक्रिय पदार्थ हैं जो बॉडी में किसी
दुसरे केमिकल से क्रिया नहीं करता हैं |
यह दुसरे कंट्रास्ट मीडिया की तुलना में सस्ता
होता हैं |
पॉजिटिव कंट्रास्ट मीडिया के रूप में आयोडीन
कंपाउंड भी काम में लिए जाते हैं | एक्सरे इमेजिंग में काम में लिए जाने वाले 90
प्रतिशत कंट्रास्ट एजेंट इंट्रावैस्कुलर कंट्रास्ट होते हैं जिन्हें जनरल
कंट्रास्ट मीडिया भी कहते हैं |
आयोडीन का उच्च एटॉमिक वेट 126 होने के कारण यह
रेडियोओपेक होता हैं | हाई एटॉमिक नंबर होने के कारण इसमें फोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट
अधिक होता हैं | जिस कारण यह कंट्रास्ट मीडिया के रूप में काम में लिया जाता हैं |
Very good 👍 information
जवाब देंहटाएंThank you so much.